...मैं अलमस्त फ़कीर-सा ...
बाटता फिरता हूँ तुमको...
की भर आये इक नदी
इस मानसून में..
की पथरा कर फट जाये
सुखी जमीं...
हमारे दिल और आँखों की तरह
इन्ही से फूटें फौवारे
आतिशबाजियो के ...
इक बंदर गुलाटी मार जाये
जो तुम्हारी आँखों से होता हुआ
तुम्हारी अंतड़रिओं में जा के खींच जाये...
अब मेरी आँखों से आसूँ नहीं
मदार के ढूध बहतें हैं
इसका एक भुआ चटक के
उड़ता हुआ बनस्पति विज्ञानं की
छात्रा के किताब में
जा के धस गया है
और बन गया है....ताड़ी का एक पेड़ ....
जिसमें अनगिनत लबनिया
धीरे-धीरे करके भर रहीं हैं...
...मैं... बूँद-बूँद करके ही मर रहा हूँ....