बुधवार, 28 जून 2017

हाशिये के बीच



मैं कुछ लोगों को राजी नहीं कर पाया
इसका मुझे खेद है
मैं बताने को तैयार हूँ, पर वो
सुनना नहीं चाहते,
मैं मरने को खड़ा हूँ, और वो
भागने को मुश्तैद!
शायद....मेरी गलती है!
हाँ! ये मेरी गलती है, कि
हर बात की मैं,
पहले पूरी तफ्तीश करता हूं
और फिर उसे जीने कि कोशिश
............लगातार. ..........
            टनटनाहट. ......
वो मेरी धमनियों में बजता है
फिर खाली पोंगरी-सा छोड़ जाता है
मैं बचता हूँ - ऐसा
कि तड़प भी नहीं सकता।

इस बचने और बजने के बीच
होती है - बस! एक अकुलाहट,
बाजार में,
सिनेमाघर में,
सिगरेट की कश में,
सड़कों की बस में।

खोजता मैं, उसे
जो हवा सुदूर पहाड़ों से आती है,
चाय की घूँट के साथ सीधे नीचे उतर जाती है,
और हर शनिवार को
दिल्ली की इन सड़कों पर,  मिलती है
एक बेजान से मरियल दीखने वाले छोकरे
और उसके लोहे के बुत के पास,
तेल से सने सिक्कों के बीच।

मैं भागता हूँ और खोजता हूँ, फिर उसे
जो पत्थर में बनी बुद्ध की प्रतिमा से आती है,
रंगों के उतार चढ़ाव में सुगठित होती है,
और फिर मुझे, वो
अपना गंदा शरीर और बोरा उठाए
स्टेशन के उन आवारा छोकरों के साथ
कूड़ा बीनते हुए मिलती है।

मैं फिर भागता हूँ,
और फिर खोजता हूँ, उसे
पर इस बार अकस्मात -
मेरी जेब में पड़ी अठन्नी तेजी से जलने लगती है
मैं फौरन उसे निकाल कर मिट्टी में फेंक देता हूँ
और मेरे देखते ही देखते
पूरी की पूरी जमीन
आसमान हो जाती है,
और वो अठन्नी -
कभी चाँद ...
तो कभी काले तवे पर
रोटी-सा चमकती है।


31/04/2004
बेर सराय,  नई दिल्ली।

शुक्रवार, 2 जून 2017



      अब जबकि हर शख्स की पीठ  में एक खंज़र  है और दूसरा हाथ में ....
  तुम्हारे जुल्फों की घनी छांव ......
जैसे पेड़ों की पत्तियों से छनकर आती सुबोह .....
....धान रोपते हुए औरत के जानु पर पड़ी पानी की एक नन्ही बूँद बहुत अहिस्ता से नीचे सरक जाती है ....

चलो घूम कर आएं ......एल्लोरा या हिमालय ....?
नहीं लूडो खेलतें हैं .......साँप -सीड़ी
बूढ़े लोगों को सीढ़ियों पर चढ़ने में कठिनाई होती है
पर मेरे पैर में तो स्केट्स लगें हैं और मैं
ट्रेन की पटरियों पर धड़धड़ाते हुए जा रहा हूँ..
ओह! ये ट्रेन रोज़ इतने लोगों को कहाँ ले जाती है?
पापा मैं पूरी ट्रेन खाना चाहता हूँ, मैं सरकार हूँ!
किसानों, मजदूरों के पेट नहीं भरते, वो पापी हैं न?
पर हमारी सरकार तो अच्छी है, जो
उनको मुवावज़े वगैरह समय समय पर देती है!

ओह! बारिश तेज़ हो गई
तो चलो भीग कर आए...
फूलदान में रखा फूलों का गुच्छा
अपनी आखिरी खुश्बू बिखेरकर सूख चुका है।
तुम अपने कंडीशन्ड किए हुए बाल ड्रायर से सुखा रही हो,
इसकी खुशबू से पूरा कमरा भर गया है,
और मेरा पेट भी।
हरिया भी इस बार देसी बीज को छोड़कर
विदेशी बीज खेतों में बो रहा है....
खाद की तरह....
कह रहा था कि- अब हमारी धरती दूसरे देशों का 'घूर' है,
अब माताएँ बच्चे नहीं जनती, मशीनें बच्चे पैदा करती हैं,
और कुछ दिनों में वो बच्चों की पूरी एक खेप आयात करेगा
और उनसे अपना खेत जुतवायेगा।

आह! तुम्हारी उंगलियों के पोर...
मेरे घुघराले बालों में उलझ गए हैं, समय की तरह
समय क्यों भागता है?
क्या कोई इसके पीछे पड़ा है?
कुत्ते भाग रहें हैं शहर से जंगल की ओर.....
और जंगल के जानवर पता नहीं कहाँ.....

तुम कितनी स्ट्रांग हो!
पहाड़ की तरह
और मैं समंदर
जो रोज़ पछाड़े खाता है
तुम्हारे दर पर.....

नर्म, सुर्ख़, मुलायम तुम्हारे होंठ
तुम्हारे रुख़सार कि जैसे शाम ढल रही हो
बहुत आहिस्ता
रोज़ शाम को गाँव की औरतें, पड़ोसी से आग माँगती हैं
चूल्हे जलाने के लिए
रोटियाँ तो अब सिर्फ देश और राज्यों की
राजधानियों में सेंकी जाती हैं.....
बुद-बुद कर जाने क्या पकता रहता है
 इस भगौने में....
(या कि मेरे दिल में..)
क्या तुम्हारे पास भी है बुदबुदाहट या कि एक अदद दिल?
वो दिल जो मैंने बनाया था, एक पेड़ पर,
उस हँसिये से जिसे लेकर तुम
गेहूँ की नन्ही बालियां काटने जा रही थी
पड़ोसी के खेत से...
फिर वही दिल तुमने बनाया था
मेरे दिल के पास वाली जेब से कलम निकालकर
दिल्ली में... किसी मुगल बादशाह की मज़ार पर
तुम कितनी नासमझ हो!
सरकार कितना पैसा खर्च करती है
इन खंडहरों के संरक्षण पर!
जिन्दों को मारो, मुर्दों को जिलाओ
अतुल्य भारत बनाओ!

आह! तुम्हारी इक मुस्कुराहट पे
लाखों हिन्दुस्तां कुर्बान!
और इसमें रहनेवाले लोग?
अरे लोगों, तुम्हारा क्या?
दिल-ओ-दिमाग या ज़र-जोरू-ज़मीन?
तुम जानो तुम्हारा रहनुमा जाने!

रहनुमाई और मसीहाई
बेताल की तरह
सूखे पेड़ों की शाखों पे उल्टे लटके हुए हैं
और बच्चे उनपर पत्थर मार रहें हैं
मीठे आमों की गुठलियां समझकर
कोई इन्हें भी दे दो
इमली के बूटे और बेरी के बेर
(या कि स्ट्रॉबेरी)
ये भी बनना चाहते हैं अमरीका की तरह
इस जंगल में सिर्फ दो शेर....

आह! तुम्हें देखकर मुझे ग़ालिब का शेर याद आ जाता है
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर की आसां हों गईं.....
मैं फिदा हूँ कि तुम हर मुश्किल बात भी
कितनी आसानी से कह देती हो!
एकदम तीर की तरह सीधे
और मुझे लगता है कि तुम्हारी भौहें कमान है
जो मेरे दिल में जाकर खिंच जाती हैं!
मुझसे पूछता है हाज़ी का छोटा पोता
इस देश की कमान किसके हाथ में है?
कमान अब हाथों में नहीं पंजों में है
पंजे खुरच रहें हैं धरती का सीना........


-बस्ती से

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

तुम्हारी उंगलियो के पोर ...
छूते हैं मुझे आंखे बनकर ...
मैं शुतुरमुर्ग की तरह 
तुम्हारी गोद में सिर छुपा लेता हूँ ...
..... की तुम्हारी याद में मैंने 
अपनी हथेलिओं पे बाल उगते देखें हैं।..

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

....मैं.....


...मैं अलमस्त फ़कीर-सा ...
बाटता फिरता हूँ तुमको...
की भर आये इक नदी 
इस मानसून में..
की पथरा कर फट जाये 
सुखी जमीं...
हमारे दिल और आँखों की तरह 
इन्ही से फूटें फौवारे 
आतिशबाजियो के ...
इक बंदर गुलाटी मार जाये
जो तुम्हारी आँखों से होता हुआ 
तुम्हारी अंतड़रिओं में जा के खींच जाये...
अब मेरी आँखों से आसूँ नहीं 
मदार के ढूध बहतें हैं 
इसका एक भुआ चटक के
उड़ता हुआ बनस्पति विज्ञानं की 
छात्रा के किताब में
जा के धस  गया है 
और बन गया है....ताड़ी का एक पेड़ ....
जिसमें अनगिनत लबनिया 
धीरे-धीरे करके भर रहीं हैं...
...मैं... बूँद-बूँद करके ही मर रहा हूँ.... 

बस्ती ..... तू क्यूँ बसती है....


बस्ती तो बसती है ...
निर्जन बियाबान बहुत जीतें हैं ...
गीतों के मरने का दर्द बहुत पीतें हैं
प्राण बहुत जीतें हैं...
प्राण बहुत जीतें हैं...

बुधवार, 3 नवंबर 2010

पीली छतरीवाली लड़की और इंतकाम

 उधर बीच मुझे याद आता है की, उदय प्रकाश की "पीली छतरी वाली लड़की" को लेकर काफी बहसों का दौर चला था...
जभी मुझे "नूर मोहम्मद राशिद" की ये  कविता याद आई थी, पर अफ़सोस उस वक्त बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिली थी..पर अभी जा के  मिली...इन दोनों में समानता है..और उसी को देखने की कोशिश भी है...
फ़िलहाल "इंतकाम" नाम की ये कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहां हूँ...



उसका चेहरा, उसके खाद्दोखाल याद आते नहीं ,
इक शबिस्ता याद है,
इक बरहना जिस्म आतिशदा के पास,
फर्श पर कालीन, कालीनो पे सेज,
धात और पत्थर के बुत,
गोशा - ए - दिवार में हँसतें हुए,
और आतिशदा में अंगारों का शोर,
उन बुतों की बेहिसी पर खस्मगी
उजली - उजली ऊँची दीवारों पे अक्श,
उन फिरंगी हकीमों की यादगार 
जिनकी तलवारों ने रखा था यहाँ 
संगे  बुनयादे-फिरंग ! 
उसका चेहरा, उसके खाद्दोखाल याद आते नहीं,
इक बरहना जिस्म अब याद है, 
अजनबी औरत का जिस्म,
मेरे "होटों" ने लिया था रात भर,
जिससे अरबाबे-वतन की बेबसी का इंतकाम, 
वो बरहना जिस्म अब तक याद है !

मंगलवार, 2 नवंबर 2010




वो लाठियां टूटती हैं
 नीम - ख्वाबों में 
वो सूद जिसको चुकाना 
है मुश्किल 
दर्द के पैबंद मानिंद 
जड़ें हैं मेरे तन - बदन पे 
इन लाठियों के लाल धब्बे 
जो मालिए के बहाने गिरें हैं 
और तुम्हारे हाथो में
झरके गुलनार हो गयें हैं ....